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समाजशास्त्र में प्रयुक्त शब्दावली, संकल्पनाएँ एवं उनका उपयोग samaajashaastr mein prayukt shabdaavali, sankalpanaen evam unaka upayog Sociology Chapter 2 book 1 notes

 

समाजशास्त्र में प्रयुक्त शब्दावली, संकल्पनाएँ एवं उनका उपयोग

परिचय 

  • हर विषय से सम्बन्धित कुछ विशेष प्रकार की शब्दावली होती है 
  • उन्हें समझे बिना उस विषय को समझ पाना थोडा कठिन होता है जैसे  गणित,  विज्ञान, इतिहास  
  • प्रत्येक विषय में शब्दावली सटीक संचार सुनिश्चित करती है, सीखने की सुविधा प्रदान करती है । 
  • यह अवधारणाओं की स्पष्टता, सटीकता और समझ को बढ़ाता है, विषयों के भीतर ज्ञान प्रसार को बढ़ावा देता है।
  • समाजशास्त्र में, शब्दावली अवधारणाओं, सिद्धांतों और घटनाओं को परिभाषित करती है, जिससे सामाजिक संरचनाओं, व्यवहारों और गतिशीलता का सटीक विश्लेषण संभव हो पाता है। 
  • समाजशास्त्रीय ज्ञान ,सामान्य बौद्धिक ज्ञान पर आधारित होता है 
  • जिस प्रकार समाज में विभिन्न प्रकार के व्यक्ति और समूह होते हैं, उसी प्रकार कई तरह की संकल्पनाएँ और विचार होते हैं। 


समाजशास्त्र से समाज की समझ 

  • समाजशास्त्र समाज को समझने के लिए सामाजिक परिवर्तनों पर दृष्टि रखने के लिए पहचाना जाता है।
  • कार्ल मार्क्स के लिए वर्ग और संघर्ष समाज को समझने की मुख्य संकल्पनाएँ थीं, 
  • एमिल दुर्खाइम के लिए सामाजिक एकता और सामूहिक चेतना मुख्य शब्द थे।
  • समाजशास्त्र में कुछ लोगों ने मानवीय व्यवहार को समझने की कोशिश की। 
  • दूसरों ने बृहत संरचनाओं जैसे वर्ग, जाति, बाजार, राज्य अथवा समुदाय को समझने की।
  • द्वितीय विश्व युद्ध के बाद समाजशास्त्र संरचनात्मक प्रकार्यवादियों से बहुत प्रभावित हुआ जिन्होंने समाज को महत्त्वपूर्ण रूप से सामंजस्यपूर्ण पाया।



सामाजिक समूह और समाज  

  • एक सामाजिक समूह ऐसे व्यक्तियों के समूह को संदर्भित करता है जो एक-दूसरे के साथ बातचीत करते हैं,  पहचान या अपनेपन की भावना साझा करते हैं समान हित, मानदंड और मूल्य रखते हैं।
  • ये समूह छोटे मैत्री मंडलों से लेकर बड़े संगठनों या समुदायों तक आकार में भिन्न हो सकते हैं। 
  • समाजशास्त्री अध्ययन करते हैं कि ये समूह कैसे बनते हैं, कार्य करते हैं और व्यक्तियों और समाज को समग्र रूप से कैसे प्रभावित करते हैं।
  • समाजशास्त्र के तुलनात्मक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य दो तथ्यों को सामने लता है 

1. प्रत्येक समाज में समूह और सामूहिकताएँ विद्यमान हैं।

2. समूहों और सामूहिकताओं के प्रकार भिन्न-भिन्न हैं

  • लोगों का कोई भी जमावड़ा आवश्यक रूप से एक सामाजिक समूह नहीं बनता है।



समुच्चय = अर्ध समूह 

यह सिर्फ लोगों का जमावड़ा होता है जो एक समय में एक ही स्थान पर एकत्र होते हैं लेकिन एक दूसरे से कोई निश्चित संबंध नहीं रखते।

  • पारम्परिक समाज नजदीकी, घनिष्ठ, आमने-सामने की अंतः क्रिया 
  • आधुनिक समाज अवैयक्तिक, अनासक्त, दूरस्थ अंतः क्रिया



सामाजिक समूह के प्रकार 

  • प्राथमिक और द्वितीयक समूह 
  • अन्तः और बाह्य समूह  
  • समुदाय एवं समाज 
  • सन्दर्भ समूह 
  • समवयस्क समूह 

प्राथमिक समूह

  • छोटे समूह जो घनिष्ठ आमने-सामने के मेल-मिलाप और संहयोग द्वारा जुड़े होते हैं। 
  • व्यक्ति उन्मुख
  • सदस्यों में एक-दूसरे से संबंधित होने की भावना होती है।
  • परिवार, ग्राम और मित्रों के समूह 

द्वितीयक समूह 

  • आकार में अपेक्षाकृत बड़े
  • लक्ष्य उन्मुख
  • औपचारिक और अवैयक्तिक संबंध
  • विद्यालय, सरकारी फायर्यालय, अस्पताल, छात्र संघ

समुदाय 

  • मानव जो बहुत अधिक वैयक्तिक, घनिष्ठ और चिरस्थायी होते हैं,
  • एक व्यक्ति की भागीदारी महत्त्वपूर्ण होती है।

समाज 

  • अवैयक्तिक, बाहरी और अस्थायी संबंध।
  • एक व्यक्ति का व्यवहार दूसरे व्यक्ति से नपा-तुला, युक्तिसंगत एवं निजी हितों के अनुसार होता है 

👉समुदाय = प्राथमिक समूह

👉समाज =  द्वितीयक समूह 

बाह्य  समूह

  • असंबंधित होते है
  • रिश्तों का अभाव 
  • त्याग और सहानुभूति का अभाव 

अन्तः समूह 

  • सम्बन्धित होने की भावना 
  • सम्बन्धों में निकट पाई जाती है 
  • त्याग और सहानुभूति

सन्दर्भ समूह 

  • कुछ लोगों के लिए हमेशा ऐसे दूसरे समूह होते हैं जिनको वे अपने आदर्श की तरह देखते हैं और उनके जैसे बनना चाहते हैं। 
  • वे समूह जिनकी जीवन शैली का अनुकरण किया जाता है, संदर्भ समूह कहलाते हैं।
  • मध्यवर्गीय भारतीय बिलकुल अंग्रेजों की तरह व्यवहार करने का प्रयत्न करते थे
  • यह प्रक्रिया लिंग-भेद पर आधारित थी
  • भारतीय पुरुष अंग्रेज पुरुषों की तरह बनाना चाहते थे। 
  • परंतु वे यह चाहतेथे कि भारतीय महिलाएँ अपना रहन-सहन 'भारतीय' ही रखें।

समवयस्क समूह 

  • समान आयु के व्यक्तियों के बीच अथवा सामान व्यवसाय समूह के लोगों के बीच बनता है।

सामाजिक स्तरीकरण 

  • भौतिक या प्रतीकात्मक लाभों तक पहुँच के आधार पर समाज में समूहों के बीच की असमानता
  • समाज में एक अधिक्रमित व्यवस्था है जिसमें कई परतें शामिल हैं
  • इस अधिक्रम में अधिक कृपापात्र शीर्ष पर और कम सुविधापात्र तल के निकट हैं।

1. दास प्रथा 

2. जाति

3. वर्ग 

4. इस्टेट 



जाति

  • व्यक्ति की स्थिति जन्म द्वारा निर्धारित होती है 
  • विभिन्न जातियाँ सामाजिक श्रेष्ठता का अधिक्रम बनाती थी। 
  • जाति संरचना में प्रत्येक स्थान दूसरों के संबंध में इसकी शुद्धता या अपवित्रता के द्वारा परिभाषित था।
  • पुरोहित जाति ब्राह्मण जोकि सबसे अधिक पवित्र हैं, बाकी सबसे श्रेष्ठ हैं और पंचम, जिनको कई बार 'बाह्य जाति' कहा गया, सबसे निम्न हैं।
  • परंपरागत व्यवस्था को सामान्यतः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के चार वर्णों के रूप में संकल्पित किया गया है।
  • भारत में जाति व्यवस्था में समय के साथ-साथ बहुत से परिवर्तन आए हैं। कथित उच्च जातियों की पवित्रता को बनाए रखने के लिए अंत: विवाह और अनुष्ठानों में कथित निम्न जाति के सदस्यों की अनुपस्थिति बहुत आवश्यक मानी जाती थी।
  • भारत में जाति व्यवस्था में समय के साथ-साथ बहुत से परिवर्तन आए हैं। कथित उच्च जातियों की पवित्रता को बनाए रखने के लिए अंत: विवाह और अनुष्ठानों में कथित निम्न जाति के सदस्यों की अनुपस्थिति बहुत आवश्यक मानी जाती थी।



वर्ग 

  • वर्ग से तात्पर्य उस समूह से है जो समान आर्थिक संसाधनों, जैसे धन, आय या संपत्ति के बंटवारे पर आधारित है।
  • स्तरीकरण की इस प्रणाली में, एक व्यक्ति का जन्म एक सामाजिक रैंकिंग में होता है, लेकिन वह अपने वर्ग द्वारा आसानी से ऊपर या नीचे जा सकता है।
  • मार्क्सवादी सिद्धांत में, सामाजिक वर्गों को उत्पादन के साधनों के साथ उनके संबंध से परिभाषित किया जाता है।
  • मैक्स वेबर ने जीवन संभावना शब्द का इस्तेमाल किया जो बाजार क्षमता द्वारा प्रदान किए जाने वाले पुरस्कारों और लाभों को संदर्भित करता है।
  • प्रकार्यवादी सिद्धांत इस सामान्य धारणा से शुरू होता है कि कोई भी समाज वर्गहीन या अस्तरीकृत नहीं है। सामाजिक असमानताएँ समाज के लिए कार्यात्मक हैं क्योंकि वे सबसे प्रतिभाशाली लोगों को प्रोत्साहन प्रदान करती हैं



प्रस्थिति' और 'भूमिका' को अकसर एक साथ देखा जाता है।

प्रस्थिति

  • सामाजिक स्थिति और इन स्थितियों से जुड़े निश्चित अधिकार और कर्तव्य से है।

भूमिका

  • अपने अपने कार्यों को करने की प्रक्रिया 


👉प्रत्येक समाज और प्रत्येक समूह में ऐसी कई स्थितियाँ होती हैं और प्रत्येक व्यक्ति ऐसी कई स्थितियों पर अधिकार रखता है।

👉प्रस्थितियाँ ग्रहण की जाती हैं, 

👉भूमिकाएँ निभाई जाती है।



प्रस्थिति क्रम 

  • व्यक्ति अपने जीवन के विभिन्न चरणों में अलग-अलग प्रस्थितियाँ ग्रहण करतें हैं। 
  • एक पुत्र, पिता बन जाता है, पिता, दादा बन जाता है और फिर परदादा एवं यह क्रम इसी तरह चलता रहता है।

प्रस्थिति के प्रकार

1. प्रदत्त प्रस्थिति

  • जन्म से अथवा अनैच्छिक रूप से ग्रहण करता है।
  • आधार आयु, जाति, प्रजाति और नातेदारी है।

2. अर्जित प्रस्थिति

  • व्यक्ति अपनी इच्छा, अपनी क्षमता, उपलब्धियों, सद्गुणों और चयन से प्राप्त करता है।
  • आधार शैक्षणिक योग्यता, आय और व्यावसायिक विशेषज्ञता है।

भूमिका संघर्ष

  • एक या अधिक प्रस्थितियों से  जुड़ी भूमिकाओं की अंसगतता है।
  • जब दो या अधिक भूमिकाओं से विरोधी अपेक्षाएँ पैदा होती हैं।

भूमिका स्थिरीकरण

  • समाज के कुछ सदस्यों के लिए कुछ विशिष्ट भूमिकाओं को सुदृढ़ करने की प्रक्रिया है।



सामाजिक नियंत्रण

  • व्यक्तियों और समूहों के व्यवहार को नियमित करने के लिए बल प्रयोग से और समाज में व्यवस्था के लिए मूल्यों व प्रतिमानों को लागू करने से है।

सामाजिक नियन्त्रण  के प्रकार 

1. औपचारिक नियन्त्रण

  • जब नियंत्रण के संहिताबद्ध, व्यवस्थित साधन प्रयोग किए जाते हैं तो यह औपचारिक सामाजिक नियंत्रण के रूप में जाना जाता है। 
  • उदाहरण के लिए, कानून और राज्य।

2. अनौपचारिक नियन्त्रण

  • यह व्यक्तिगत, अशासकीय और असंहिताबद्ध होता है।
  • अनौपचारिक सामाजिक नियंत्रण के विभिन्न माध्यम होते हैं अर्थात परिवार, धर्म, नातेदारी आदि



विचलन 

  • किसी व्यक्ति या समूचे समाज का वह व्यवहार जो सामाजिक मान्यताओं या नियमों के खिलाफ हो, जिससे कि उसे सामाजिक समर्थन नहीं मिलता और उसे सामाजिक अलगाव में डाल दिया जाता है।
  • सामाजिक नियंत्रण सकारात्मक या नकारात्मक हो सकता है। 
  • समाज के सदस्यों को अच्छे व्यवहार के लिए पुरस्कृत किया जा सकता है।
  • विचलन को राह पर लाने के लिए नकारात्मक स्वीकृति का भी प्रयोग किया जा सकता है 








 

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